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लंका काण्ड / भाग 7 / रामचंद्रिका / केशवदास

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संदेश

शूर्पणखा जो विरूप करी तुम तात कियो हमहूँ दुख भारौ।
वारिधि बंधन कीन्हों हुतो तुम मो सुत बधन कीन्हों तिहारौ।।
होइ जो होनी सो ह्वै ही रहै, न मिटै, जिय कोटि बिचार बिचारौ।
दै भृगुनंदन को परसा रघुनंदन सीतहिं लै पगु धारौ।।115।।
(दोहा) प्रति उत्तर दूतहिं दियो, वह कहि श्री रघुनाथ।
कहियो रावन हहिं जब, मंदोदरि के साथ।।116।।

संयुता छंद

रावण- कहि धौं बिलंब कहा भयो। रघुनाथ पै जब तू गयो।
केहि भाँति तू अबलोंकियो। कहु तोहि उत्तर का दियो।।117।।

दंडक

दूत- भूतल के इन्द्र भूमि पौढ़े हुते रामचंद्र,
मारीच कनकमृगछालहि बिछाये जू।
कुंभहर कुंभकर्णनासाहर गोह सीस
अरन अकंप अच्छ-अरि उर लाये जू।।
देवांतक नारांतक अंतक त्यों मुस्क्यात,
विभीषन बैन तन कानन रुखाये जू।
मेघनाद मकराच्छ महोदर प्रानहार,
बान त्यौं बिलोकत परस सुख पाये जू।।118।।

राम संदेश

विजय छंद

भूमि दयी भुवदेवन कों भृगुनंदन भूपन सौं बर (बलपूर्वक) लैकै।
वामन स्वर्ग दियो मधवै सो वली बलि बाँधि पताल पठै कै।
संधि की बातन को प्रतिउत्तर आपुनही कहिए हित कैकै।
दीन्हीं है लंक विभीषन को, अब देहिं कहा तुमकों यह दैकै।।119।।

मालिनी छंद

मंदोदरी-

तब सब कहि हारे राम को दूत आयो।
अब समुझि परी जौ पुत्र-भैया जुझायो।।
दसमुख सुख जीजै राम सो हों लरौं यौं।
हरि हर सब हारे देवि दुर्गा लरी ज्यौं।।120।।

रावण- छल करि पठयो तो पावतो जो कुठारै।
रघुपति बपुरा को? धावतो सिंधु पारै।।
हति सुरपति भर्ता, विष्णु मायाविलासी।
सुनहि सुमुखि तोकों, ल्यावतो लच्छिदासी।।121।।

रावण यज्ञ विध्वंस

चामर छंद

पौड़रूढ़िकोश (पक्की ढिठाई का समूह; अति ढीठ) मूढ़ गूढ़ गेह में गयो।
शुक्रमंत्र सोधि सोधि होम कों जहीं भयो।।
वायुपुत्र, बालिपुत्र, जामवंत धाइयो।
लंका में निसंक अंक (राज चिन्हादि)
लंका में निसंक अंक (राज चिन्हादि) लंकानाथ पाइयो।।122।।
मत्त दंति पंक्ति वाजिराजि छोरिकै दयी।
भाँति-भाँति पक्षि-राजि भाजि माजि कै गई।।
आसने बिछावने वितान तान तू रियौ।
यत्र तत्र छत्र चारु चोर चारु चूरियो।।123।।

भुजंगपयात छंद

भगीं देखिकै संकि लंकेस बाला।
दुरि दौरि मंदोदरी चित्रसाला।।
तहाँ दौरिगो बालि को पूत फूल्यो।
सबै चित्र की पुत्रिका देखि भूल्यो।।124।।
गहैं दौरि जाको तजै ताकि ताको।
तजैं जा दिशा को भजै बाम ताको।।
भली कै निहारी सबै चित्र सारी।
लहै सुंदरी क्यौं दरी को बिहारी।।125।।
तजै दृष्टि कों चित्र की सृष्टि धन्या।
हँसी एक ताकों तही देव कन्या।।
तहीं हासही देव-कन्या दिखाई।
गहीं संकि कै लंकरानी बताई।।126।।
सुआनी गहे केस लंकेस रानी।
तमश्री मनौ सूर सोभानि सानी।।
गहे बाँह ऐंचे चहूँ ओर ताकों।
मनौ हंस लीन्हैं मृणाली लता कों।।127।।
छुटी कंठमाला, लुरै, हार टूटे।
खसैं फूल फूले, लसैं केश छूटे।।
फटी कंचुकी, किंकिनी चारु छूटी।
पुरी काम की सी मनौ रुद्र लूटी।।128।।
सुनी लंकरानीन की दीन बानी।
तहीं छाड़ि दीन्हो महा मौन मानी।।
उठ्यो सोगदा लै यदा लंकवासी।
गये भागि कै सर्व साखा विलासी।।129।।
मंदोदरी- (दोहा) सीतहि दीन्हो दुख वृथा, साँचो देखौ आजु।
करै जो जैसी त्यौं लहै; कहा रंग कह राजु।।130।।

विजय छंद

रावण-
को बपुरा जो मिल्यो है विभीषन, है कुलदूषन, जीवैगो कौ लौं।
कुंभकरन मरयो मधवारिपु तौ री कहा न डरौं यम सौ लौं।
श्री रघुनाथ के गातिनि सुंदरि, जानै न तू कुसली तनु तो लौं।
साल सबै दिगपालन के कर, रावन के करवाल है जौ लौं।।131।।

राम रावण युद्ध

चामर छंद

रावनै चले चले ते धाम धाम ते सबै।
साजि साजि साज सूर गाजि गाजि कै तबै।।
दीह दुंदुभी अपार भाँति भाँति बाजही।
युद्धभूमि मध्य क्रुद्ध मत्त दति राजहीं।।132।।

चंचरी छंद

इंद्र श्री रघुनाथ को रथहीन भूतल देखि कै।
वेगि सारथि सौं कहेउ रथ जाहि लै सुविशेषि कै।
तून अच्छय बाण स्वच्छ अमेद लै तनत्रान को।
आइयो रणभूमि में करि अप्रमेय (बहुत, असंख्य) प्रनाम को।।133।।