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लटकी लरक पर भौँह की फरक पर / अज्ञात कवि (रीतिकाल)

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लटकी लरक पर भौँह की फरक पर ,
नैन की ढरक पर भरि भरि ढारिए ।
हीरे के से अमल कपोल विँहसन पर
छाती उसरन पर निसँक पसारिए ।
गहरौही गति पर गहरौही नाभि पर ,
हौँ ना हटिकति प्यारे नैसुक निहारिए ।
एक प्रान प्यारीजू की कटि लचकीली पर ,
ढीली ढीली नजर संभारे लाल डारिए ।


रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।