लाख जतन / राजेन्द्र प्रसाद सिंह
लाख जतन
जानकर किये;
पावों के रुख पलटें कैसे?
--इतने दिन साथ हम जिए!
एक परत टूट गयी
समय की हँसी से,
दूसरी परत हमने
तोड़ दी खुशी से,
--अनहोना हो गया इसी से!
लाख जतन
जानकर किये;
मीठे मुँह तीते हों कैसे?
--झूमें हम साथ बेपिये!
एक राह छूट गयी
हवा के ज़हर से,
छूट गयी दूजी
पछतावे के डर से,
--अनसोचा हो गया असर से!
लाख जतन
जानकर किये;
फूल बिंधे अब लौटें कैसे?
--सासों में गूँथ जो लिये!
रंग-गाँठ कसी रही
शोणित की लय में
गंध-गाँठ खुल आई
पूरक विनिमय में!
-फल गयी सचाई अभिनय में!
लाख जतन
जानकर किये
पत्थर कह झुठलाये कैसे –
रतनों के मोल जो लिए!
एक छाँह सुलग उठी
बर्फ़ की नदी में,
एक छाँह बरस गयी
जलती घाटी में,
--जानें, क्या पैठ गया जी में!
लाख जतन
जानकर किये;
बादल ये फट जाएँ कैसे?
आँचल के साथ जो सिये!