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वफ़ा-ए-दोस्ताँ कैसी जफ़ा-ए-दुश्मनाँ कैसी / 'वहशत' रज़ा अली कलकत्वी
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वफ़ा-ए-दोस्ताँ कैसी जफ़ा-ए-दुश्मनाँ कैसी
न पूछा हो किसी ने जिस को उस की दास्ताँ कैसी
कुछ ऐसा एहतराम-ए-दर्द-ए-उल्फ़त है मेरे दिल को
ख़ामोशी हुक्मराँ है आह ओ फ़रियाद ओ फ़ुगाँ कैसी
किसी को फ़िक्र-ए-आजादी नहीं इस क़ैद-ए-रंगीं से
दिल-ए-आलम पे है छाई हुई मुहर-ए-बुताँ कैसी
भुला ही देते हैं उस को जो गुज़रा बज़्म-ए-आलम से
है सब को अपनी फ़िक्र याद-ए-रफ़्तगाँ कैसी
तुम्हारा मुद्दआ ही जब समझ में कुछ नहीं आया
तो फिर मुझ पर नज़र डाली ये तुम ने मेहर-बाँ कैसी
अभी होते अगर दुनिया में दाग़-ए-देहलवी ज़िंदा
लो वो सब को बता देते हैं ‘वहशत’ की ज़बाँ कैसी