वस्तुओं का व्याकरण / दिनेश कुमार शुक्ल
कोई गुब्बारा कोई परचम कोई आवाज बन कर छू रहा था आसमान
हरी काली हवा में सब उड़ रहे थे
और नीचे रोशनी थी
रोशनी के अचम्भे में
अर्धछाया, उपच्छाया, प्रतिच्छाया और छाया के बसेरे थे
उन बसेरों में छुपे विस्फोट चाबी भर रहे थे
समय के टाईम बम में
कभी आगे कभी पीछे जा रहा था समय
शुद्ध प्रज्ञा पर विमोहित आ रहे थे रूप धर कर
देव, नर, किन्नर, दनुज
कोई चीनांशुक कोई मलमल कोई वल्कल पहनकर,
मुद्रिका के बीच से जैसे मसक-सा सटक जाता एक पूरा जमाना था
वस्तुयें थीं
वस्तुओं की वास्तविकता, वस्तुओं की वस्तुस्थिति,
वस्तुओं का वास्तुशास्त्र
वस्तुओं के वसु, पुनर्वसु और थे वसुदेव
सारा तंत्र उनका था
सर्चलाइट निकलकर सर्कस के तम्बू से कभी उत्तर कभी दक्खिन
गगन में ढूँढ़ती थी मार्केट को,
उधर नीचे अँधेरों में
आग की भूखी
हजारों मील फैली हुई सूखी घास थी
घास में झुनझुने जैसे बीज बजते थे
और भाषा बीज में थी
शब्द थे अब मौन, भाषा वस्तु में थी
वस्तुओं की वर्णमाला, वस्तुओं का व्याकरण था
वस्तुयें थीं, पैकेजिंग थी, ब्रान्ड थे, च्वाइस बहुत थी
और क्रेडिट कार्ड थे
सर्वव्यापी एक मुद्रा थी-
अभय मुद्रा, भूमि मुद्रा, बज्र मुद्रा
और मुद्राराक्षस कीटाणु भर कम्यूटरों में हँस रहे थे
और साइनबोर्ड से मुद्रित मुदित-मन मानिनी का मद टपकता था
उसी रस में उफन कर बह चले थे शहर के नाले
उनमें नहाने के लिये अब मचा था हड़कम्प
खिलखिलाहट थी गजब की और धक्कमपेल में कितने फफोले फूठते थे
ढूँढ़ता मैं फिर रहा उस घाट पर अभिव्यक्ति के डूबे हुए सोपान
ये सड़क थी या कि वैतरणी नदी थी कठिन था कहना
वधिक की तलवार बन कर सभी सड़कें
शहर में गहरे धँसी थीं
हजारों तरह की कारें, हजारों तरह की गति थी
उसी गति में छुपे थे सब प्रगति के गंतव्य
हर कार का कानून अपना था
किसी को अधिकार था फुटपाथ पर चढ़ कर सभी को पीस देने का
किसी का हक थी फिरौती और वसूली
आदमी था विरथ रथ पर चढ़ी चीजें थीं
वस्तुयें थीं
वस्तुओं से जुड़ी कितनी वस्तुयें थी
वस्तुओं की कार्य-कारण श्रृंखला
अब रच रही थी नया दर्शन, एक अभिनव नव्य-न्याय!
गोकि रंगत सुबह की बदली हुई थी
कूट भाषा में लिखा नक्शा हमारी जिन्दगी का
अभी कल विज्ञान ने सब पढ़ लिया था,
वस्तुओं के बावजूद गनीमत थी
आदमी की नसों में अब भी
रक्त बहता हुआ जो था, लाल ही था!