भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वही-वही / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वही-वही
पीर और पानी की,
प्राकृत कुरबानी की-
नेह और नाते की नदिया,
गाँव के किनारे से-
घर-घर के द्वारे से-
निचुड़-निचुड़
बहती है,
लरज-गरज सहती है,
जग-बीती कहती है।

रचनाकाल: ०२-१२--१९७८