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वह / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा

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वह अचानक आया है रंगमंच पर
बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है आगे
बोलता कम, काम कर रहा है बूते से ज्य़ादा
उसकी- सी गति कम ही देखने को मिलती है
एक पाँव दफ्तर में दूसरा कां$फ्रेंस हॉल में
एक हाथ में हैवी टी का निमंत्रण पत्र
दूसरे में डिनर का
आए दिन करवाता है सेमिनार कार्यशालाएं
हर कोई है उतावला उससे मिलने
हर वक्ता उसके पक्ष में बोलता है
बांधता है तारीफों के पुल
कई लोग उसका नाम-पता-फोन जानने के लिए
हाथ में लिए डायरियाँ खोजते हैं इधर-उधर
वह जुटा होता है चाय-नाश्ते की व्यवस्था में
उसकी स्मरण शक्ति का जवाब नहीं
कल तक वह गली के कोने वाले दस बाई दस के कमरे में रहा करता था
जिसकी खिड़की पर पड़ा रहता था धारियों वाला घिसा पर्दा
टूटी होती थीं दरवाजे की दोनों कुण्डियाँ
सोता था खुरदरे फर्श पर
उससे मिलने आते हमने कभी किसी को नहीं देखा
दूध या अखबार वाला तक नहीं
यहाँ तक कि पोस्टमैन को भी नहीं
पर अब परिदृश्य बदल चुका है
शानदार फ्लैट नौकर चाकर कान्टेसा गाड़ी है उसके पास
पाँच दस जी हुज़ूरियों से रहता है घिरा हरदम
हाथ में होता है मोबाइल फोन
जो किसी ज़रूरी मीटिंग में ज़रूर बजेगा
वह सब कुछ मैनेज कर लेता है
मेहमानों के स्वागत से लेकर चाय-कॉफी के जूठे कप पकडऩा तक
बड़े लोगों के बैग उठाना
रुकने का इंतज़ाम करना
उसकी एप्रोच इतनी है कि यहीं से करवा लेता है
दिल्ली के काम
उसके धैर्य की देनी होगी दाद
वह घंटों कर लेता है प्रतीक्षा बशर्ते निकलता हो उसका कोई काम
उसकी छोटी-छोटी आँखों में फैला है बड़े-बड़े सपनों का जाल
वह मिलाएगा नहीं आपसे आँखें
लेकिन पहचानने में कभी नहीं करेगा चूक
उसे कभी खुलकर हँसते नहीं देखा हमने
न रोते
माँ की मौत पर भी नहीं
वह अपने बारे में कभी कुछ नहीं बताता
दूसरे अक्सर उसी की करते हैं चर्चा
कहते हैं देखकर उसकी रफ्तार
वह ज़रूर निकल जाएगा एक दिन समय से आगे
लगता है समय बंद है उसकी मुट्ठी में