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<poem>मैं बनाने चला हूँ वही आशियाँ
आ के जिसकी हिफाज़त करें बिजलियाँ

क्या हुआ छा गई हैं अगर बदलियाँ
चुप रहेंगी भला कब तलक आँधियाँ

जुल्म जब हद से बाहर हुआ आदमी
आ गया सड़क पे भींच कर मुट्ठियाँ

बीज नफरत के मंचों से बोते हैं जो
उनके पांवों से अब खींच लो सीढियां

पहने बैठे हैं महफ़िल में दस्ताने वो
खून में तो नहीं भीगी हैं उँगलियाँ

कोई तिनका फकत न समझ ले हमें
अस्ल में हम तो माचिस की हैं तीलियाँ

फूल जितने थे जाने कहाँ खो गए
सिर्फ काँटों भरी रह गयी डालियाँ

दिल के एवज 'अनिल' तुझको शीशा मिला
जिस्म के नाम पर रह गयीं हड्डियाँ</poem>
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