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मैं बनाने चला हूँ वो इक आशियाँ / कुमार अनिल
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मैं बनाने चला हूँ वही आशियाँ
आ के जिसकी हिफाज़त करें बिजलियाँ
क्या हुआ छा गई हैं अगर बदलियाँ
चुप रहेंगी भला कब तलक आँधियाँ
ज़ुल्म जब हद से बाहर हुआ आदमी
आ गया सड़क पे भींच कर मुट्ठियाँ
बीज नफ़रत के मंचों से बोते हैं जो
उनके पाँवों से अब खींच लो सीढियाँ
पहने बैठे हैं महफ़िल में दस्ताने वो
ख़ून में तो नहीं भीगी हैं उँगलियाँ
कोई तिनका फ़कत न समझ ले हमें
अस्ल में हम तो माचिस की हैं तीलियाँ
फूल जितने थे जाने कहाँ खो गए
सिर्फ काँटों भरी रह गई डालियाँ
दिल के एवज 'अनिल' तुझको शीशा मिला
जिस्म के नाम पर रह गई हड्डियाँ