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<poem>पत्थर बचे हैं एक भी शीशा नहीं बचा
आँखों का कोई ख्वाब से रिश्ता नहीं बचा

ग़ालिब का, मीर का वो जमाना नहीं बचा
गज़लों में अब वो फूल सा लहज़ा नहीं बचा

कैसी बहार आई है इस बार क्या कहें
पेड़ो पे सब्ज एक भी पत्ता नहीं बचा

एक आबरू ही पास थी कल वो भी लूट गयी
उसके बदन का आखिरी गहना नहीं बचा

अपने लहू से जिसने बनाया था घर कभी
घर में उसी के वास्ते कोना नहीं बचा

सहमे हुए हैं सब ही धमाकों के शोर से
छत की मुंडेर तक पे परिंदा नहीं बचा

इतना ज़हर घटाओं से बरसा है इन दिनों
अब तो कहीं भी, कोई भी प्यासा नहीं बचा</poem>
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