भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पत्थर बचे है एक भी शीशा नहीं बचा / कुमार अनिल
Kavita Kosh से
पत्थर बचे हैं एक भी शीशा नहीं बचा
आँखों का कोई ख्वाब से रिश्ता नहीं बचा
ग़ालिब का, मीर का वो जमाना नहीं बचा
गज़लों में अब वो फूल सा लहज़ा नहीं बचा
कैसी बहार आई है इस बार क्या कहें
पेड़ो पे सब्ज एक भी पत्ता नहीं बचा
एक आबरू ही पास थी कल वो भी लूट गयी
उसके बदन का आखिरी गहना नहीं बचा
अपने लहू से जिसने बनाया था घर कभी
घर में उसी के वास्ते कोना नहीं बचा
सहमे हुए हैं सब ही धमाकों के शोर से
छत की मुंडेर तक पे परिंदा नहीं बचा
इतना ज़हर घटाओं से बरसा है इन दिनों
अब तो कहीं भी, कोई भी प्यासा नहीं बचा