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{{KKRachna
|रचनाकार= श्रद्धा जैन
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समझ रहे हो, चढ़ान की हैं
ये सीढ़ियाँ ही ढलान की हैं

ये धर्म, भाषा, अमीर, मुफ़लिस
चिताएँ ये संविधान की हैं

फ़साद करना है जिनका पेशा
उन्हीं को फिकरें जहान की हैं

सकून, खुशियाँ हैं, ज़िंदगी में
ये खूबियाँ बस बयान की हैं

गुनाह की हैं, गवाह वो भी
जो खिड़कियाँ उस मकान की हैं

नसीब-ए-शब् में सहर है इक दिन
ये बातें बस खुशगुमान की हैं
</poem>
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