समझ रहे हो, चढ़ान की हैं
ये सीढ़ियाँ तो ढलान की हैं
ये धर्म, भाषा, अमीर, मुफ़लिस
चिताएँ ये संविधान की हैं
मिठाइयाँ बस वो ही हैं फीकी
जो सब से ऊँची दुकान की हैं
फसाद दिल में है और लब पर
सदाएँ अम्न ओ अमान की हैं
खुलूस, नेकी, वफ़ा, भलाई
ये खूबियाँ बस बयान की हैं
गुनाह की हैं, गवाह वो भी
जो खिड़कियाँ उस मकान की हैं
नसीब-ए-शब् में सहर है इक दिन
ये बातें किस खुशगुमान की हैं ?
वो पर क़तर कर ये बोला 'श्रद्धा'
खुली हदें आसमान की हैं