भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनकर }} {{KKCatKavita}} <poem> '''निर्झरिणी''' मधु-यामिनी-अंचल-ओ…
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=दिनकर
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
'''निर्झरिणी'''
मधु-यामिनी-अंचल-ओट में सोई थी
:::बालिका-जूही उमंग-भरी;
विधु-रंजित ओस-कणों से भरी
:::थी बिछी वन-स्वप्न-सी दूब हरी;
मृदु चाँदनी-बीच थी खेल रही
:::वन-फूलों से शून्य में इन्द्र-परी,
कविता बन शैल-महाकवि के
:::उर से मैं तभी अनजान झरी।
हरिणी-शिशु ने निज लास दिया,
:::मधु राका ने रूप दिया अपना,
कुमुदी ने हँसी, परियों ने उमंग,
:::चकोरी ने प्रेम में यों तपना।
नभ नील ने जन्म-घड़ी ही में नील
:::समुद्र का भव्य दिया सपना,
‘पी कहाँ’ कह प्रेमी पपीहरे ने
:::सिखलाया मुझे ‘पी कहाँ’ जपना।
गति-रोध किया गिरि ने, पर, मैं
:::द्रुत भाग चली घहराती हुई,
सरकी उपलों में भुजंगिनी-सी
:::मैं शिला से कहीं टकराती हुई;
जननी-गृह छोड़ चली, मुड़ देखा
:::कभी न उसे ललचाती हुई,
गिरि-शृंग से कूद पड़ी मैं अभय
:::‘पी कहाँ?’‘पी कहाँ?’ धुन गाती हुई।
वनभूमि ने दूब के अंचल में
:::गिरि से गिरते मुझे छान लिया,
गिरि-मल्लिका कुन्तल-बीच पिरो
:::मुझको निज बालिका मान लिया;
कलियों ने सुहाग के मोती दिये,
:::नव ऊषा ने सेंदुर-दान दिया,
जगती को हरी लख मैंने हरी-हरी
:::दूबों का ही परिधान लिया।
तट की हिमराशि की आरसी में
:::अपनी छवि देख दीवानी हुई।
प्रिय-दर्शन की मधु लालसा में
:::पिघली, पल में घुल पनी हुई।
टकराने चली मैं असीम के वक्ष से,
:::रूप के ज्वार की रनी हुई।
उनमाद की रागिनी, बेकली की
:::अपनी ही मैं आप कहानी हुई।
जननी-धरणी मुझे गोद लिये
:::थी सचेत कि मैं भग जाऊँ नहीं,
वन-जन्तुओं के शिशु आन जुटे
:::कि सखा बिन मैं दुख पाऊँ नहीं।
थी डरी मैं, पड़ी ममता में कहीं
:::इस देश में ही रह जाऊँ नहीं,
प्रिय देखे बिना झर जाऊँ न व्यर्थ,
:::कहीं छवि यों ही गँवाऊँ नहीं।
एक रोज़ उनींदी हुई जो धरा,
:::द्रुत भागी मैं आँख बचाती हुई,
वन-वल्लरी-अंचल-बीच कहीं
:::तृण-पुंज में वेश छिपाती हुई।
निकली द्रुम-कुंज की छाँह से तो
:::मैं चली फिर से घहराती हुई,
सिकता-से पिपासित विश्व के कंठ में
:::स्वर्ग-सुधा सरसाती हुई।
वनदेवी! द्रुमांचल श्याम हिला
:::फिरने का करो न इशारा मुझे,
उपलो! पद यों न गहो, भुज खोल
:::न बाँध, तू हाय! किनारा ! मुझे।
किसको ध्वनि दूर से आई? पुकार
:::रहा सुन अम्बुधि प्यारा मुझे,
जननी धरणी! तिरछी हो जरा,
:::अरी! वेग से खींच तू धारा मुझे।
अभिसारिका मैं मिलने हूँ चली,
:::प्रिय-पंथ रे , कोई बताना जरा,
किस शूली पै ‘मीरा’-पिया की है सेज?
:::इशारों से कोई दिखाना जरा।
पथ-भूली-सी कुंज में राधिका के
:::हित श्याम! तू वेणु बजाना जरा,
तुझमें प्रिय! खोने को तो आ रही
:::पर तू भी गले से लगाना ज़रा।
१९३३
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=दिनकर
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
'''निर्झरिणी'''
मधु-यामिनी-अंचल-ओट में सोई थी
:::बालिका-जूही उमंग-भरी;
विधु-रंजित ओस-कणों से भरी
:::थी बिछी वन-स्वप्न-सी दूब हरी;
मृदु चाँदनी-बीच थी खेल रही
:::वन-फूलों से शून्य में इन्द्र-परी,
कविता बन शैल-महाकवि के
:::उर से मैं तभी अनजान झरी।
हरिणी-शिशु ने निज लास दिया,
:::मधु राका ने रूप दिया अपना,
कुमुदी ने हँसी, परियों ने उमंग,
:::चकोरी ने प्रेम में यों तपना।
नभ नील ने जन्म-घड़ी ही में नील
:::समुद्र का भव्य दिया सपना,
‘पी कहाँ’ कह प्रेमी पपीहरे ने
:::सिखलाया मुझे ‘पी कहाँ’ जपना।
गति-रोध किया गिरि ने, पर, मैं
:::द्रुत भाग चली घहराती हुई,
सरकी उपलों में भुजंगिनी-सी
:::मैं शिला से कहीं टकराती हुई;
जननी-गृह छोड़ चली, मुड़ देखा
:::कभी न उसे ललचाती हुई,
गिरि-शृंग से कूद पड़ी मैं अभय
:::‘पी कहाँ?’‘पी कहाँ?’ धुन गाती हुई।
वनभूमि ने दूब के अंचल में
:::गिरि से गिरते मुझे छान लिया,
गिरि-मल्लिका कुन्तल-बीच पिरो
:::मुझको निज बालिका मान लिया;
कलियों ने सुहाग के मोती दिये,
:::नव ऊषा ने सेंदुर-दान दिया,
जगती को हरी लख मैंने हरी-हरी
:::दूबों का ही परिधान लिया।
तट की हिमराशि की आरसी में
:::अपनी छवि देख दीवानी हुई।
प्रिय-दर्शन की मधु लालसा में
:::पिघली, पल में घुल पनी हुई।
टकराने चली मैं असीम के वक्ष से,
:::रूप के ज्वार की रनी हुई।
उनमाद की रागिनी, बेकली की
:::अपनी ही मैं आप कहानी हुई।
जननी-धरणी मुझे गोद लिये
:::थी सचेत कि मैं भग जाऊँ नहीं,
वन-जन्तुओं के शिशु आन जुटे
:::कि सखा बिन मैं दुख पाऊँ नहीं।
थी डरी मैं, पड़ी ममता में कहीं
:::इस देश में ही रह जाऊँ नहीं,
प्रिय देखे बिना झर जाऊँ न व्यर्थ,
:::कहीं छवि यों ही गँवाऊँ नहीं।
एक रोज़ उनींदी हुई जो धरा,
:::द्रुत भागी मैं आँख बचाती हुई,
वन-वल्लरी-अंचल-बीच कहीं
:::तृण-पुंज में वेश छिपाती हुई।
निकली द्रुम-कुंज की छाँह से तो
:::मैं चली फिर से घहराती हुई,
सिकता-से पिपासित विश्व के कंठ में
:::स्वर्ग-सुधा सरसाती हुई।
वनदेवी! द्रुमांचल श्याम हिला
:::फिरने का करो न इशारा मुझे,
उपलो! पद यों न गहो, भुज खोल
:::न बाँध, तू हाय! किनारा ! मुझे।
किसको ध्वनि दूर से आई? पुकार
:::रहा सुन अम्बुधि प्यारा मुझे,
जननी धरणी! तिरछी हो जरा,
:::अरी! वेग से खींच तू धारा मुझे।
अभिसारिका मैं मिलने हूँ चली,
:::प्रिय-पंथ रे , कोई बताना जरा,
किस शूली पै ‘मीरा’-पिया की है सेज?
:::इशारों से कोई दिखाना जरा।
पथ-भूली-सी कुंज में राधिका के
:::हित श्याम! तू वेणु बजाना जरा,
तुझमें प्रिय! खोने को तो आ रही
:::पर तू भी गले से लगाना ज़रा।
१९३३
</poem>