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निर्झरिणी / रामधारी सिंह "दिनकर"

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निर्झरिणी

मधु-यामिनी-अंचल-ओट में सोई थी
बालिका-जूही उमंग-भरी;
विधु-रंजित ओस-कणों से भरी
थी बिछी वन-स्वप्न-सी दूब हरी;
मृदु चाँदनी-बीच थी खेल रही
वन-फूलों से शून्य में इन्द्र-परी,
कविता बन शैल-महाकवि के
उर से मैं तभी अनजान झरी।

हरिणी-शिशु ने निज लास दिया,
मधु राका ने रूप दिया अपना,
कुमुदी ने हँसी, परियों ने उमंग,
चकोरी ने प्रेम में यों तपना।
नभ नील ने जन्म-घड़ी ही में नील
समुद्र का भव्य दिया सपना,
‘पी कहाँ’ कह प्रेमी पपीहरे ने
सिखलाया मुझे ‘पी कहाँ’ जपना।

गति-रोध किया गिरि ने, पर, मैं
द्रुत भाग चली घहराती हुई,
सरकी उपलों में भुजंगिनी-सी
मैं शिला से कहीं टकराती हुई;
जननी-गृह छोड़ चली, मुड़ देखा
कभी न उसे ललचाती हुई,
गिरि-शृंग से कूद पड़ी मैं अभय
‘पी कहाँ?’‘पी कहाँ?’ धुन गाती हुई।

वनभूमि ने दूब के अंचल में
गिरि से गिरते मुझे छान लिया,
गिरि-मल्लिका कुन्तल-बीच पिरो
मुझको निज बालिका मान लिया;
कलियों ने सुहाग के मोती दिये,
नव ऊषा ने सेंदुर-दान दिया,
जगती को हरी लख मैंने हरी-हरी
दूबों का ही परिधान लिया।

तट की हिमराशि की आरसी में
अपनी छवि देख दीवानी हुई।
प्रिय-दर्शन की मधु लालसा में
पिघली, पल में घुल पनी हुई।
टकराने चली मैं असीम के वक्ष से,
रूप के ज्वार की रनी हुई।
उनमाद की रागिनी, बेकली की
अपनी ही मैं आप कहानी हुई।

जननी-धरणी मुझे गोद लिये
थी सचेत कि मैं भग जाऊँ नहीं,
वन-जन्तुओं के शिशु आन जुटे
कि सखा बिन मैं दुख पाऊँ नहीं।
थी डरी मैं, पड़ी ममता में कहीं
इस देश में ही रह जाऊँ नहीं,
प्रिय देखे बिना झर जाऊँ न व्यर्थ,
कहीं छवि यों ही गँवाऊँ नहीं।


एक रोज़ उनींदी हुई जो धरा,
द्रुत भागी मैं आँख बचाती हुई,
वन-वल्लरी-अंचल-बीच कहीं
तृण-पुंज में वेश छिपाती हुई।
निकली द्रुम-कुंज की छाँह से तो
मैं चली फिर से घहराती हुई,
सिकता-से पिपासित विश्व के कंठ में
स्वर्ग-सुधा सरसाती हुई।

वनदेवी! द्रुमांचल श्याम हिला
फिरने का करो न इशारा मुझे,
उपलो! पद यों न गहो, भुज खोल
न बाँध, तू हाय! किनारा ! मुझे।
किसको ध्वनि दूर से आई? पुकार
रहा सुन अम्बुधि प्यारा मुझे,
जननी धरणी! तिरछी हो जरा,
अरी! वेग से खींच तू धारा मुझे।

अभिसारिका मैं मिलने हूँ चली,
प्रिय-पंथ रे , कोई बताना जरा,
किस शूली पै ‘मीरा’-पिया की है सेज?
इशारों से कोई दिखाना जरा।
पथ-भूली-सी कुंज में राधिका के
हित श्याम! तू वेणु बजाना जरा,
तुझमें प्रिय! खोने को तो आ रही
पर तू भी गले से लगाना ज़रा।

१९३३