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{{KKRachna
|रचनाकार=दिनकर
}}
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<poem>
'''शेष-गान'''
संगिनि, जी भर गा न सका मैं।
::::[१]
::गायन एक व्याज़ इस मन का,
::मूल ध्येय दर्शन जीवन का,
रँगता रहा गुलाब, पटी पर अपना चित्र उठा न सका मैं।
::::[२]
::इन गीतों में रश्मि अरुण है,
::बाल ऊर्म्मि, दिनमान तरुण है,
बँधे अमित अपरूप रूप, गीतों में स्वयं समा न सका मैं।
::::[३]
::बधे सिमट कुछ भाव प्रणय के,
::कुछ भय, कुछ विश्वास हृदय के,
पर, इन से जो परे तत्व वर्णों में उसे बिठा न सका मैं।
::::[४]
::घूम चुकी कल्पना गगन में,
::विजन विपिन, नन्दन-कानन में,
अग-जग घूम थका, लेकिन, अपने घर अब तक आ न सका मैं।
::::[५]
::गाता गीत विजय-मद-माता,
::मैं अपने तक पहुँच न पाता,
स्मृति-पूजन में कभी देवता को दो फूल चढ़ा न सका मैं।
::::[६]
::परिधि-परिधि मैं घूम रहा हूँ,
::गन्ध-मात्र से झूम रहा हूँ,
जो अपीत रस-पात्र अचुम्बित, उस पर अधर लगा न सका मैं।
::::[७]
::सम्मुख एक ज्योति झिलमिल है,
::हँसता एक कुसुम खिलखिल है,
देख-देख मैं चित्र बनाता, फिर भी चित्र बना न सका मैं।
::::[८]
::पट पर पट मैं खींच हटाता,
::फिर भी कुछ अदृश्य रह जाता,
यह माया मय भेद कौन? मन को अब तक समझा न सका मैं।
::::[९]
::पल-पल दूर देश है कोई,
::अन्तिम गान शेष है कोई,
छाया देख रहा जिसकी, काया का परिचय पा न सका मैं।
::::[१०]
::उडे जा रहे पंख पसारे,
::गीत व्योम के कूल-किनारे,
उस अगीत की ओर जिसे प्राणों से कभी लगा न सका मैं।
::::[११]
::जिस दिन वह स्वर में आयेगा,
::शेष न फिर कुछ रह जायेगा,
कह कर उसे कहूँगा वह जो अब तक कभी सुना न सका मैं।
</poem>
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|रचनाकार=दिनकर
}}
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<poem>
'''शेष-गान'''
संगिनि, जी भर गा न सका मैं।
::::[१]
::गायन एक व्याज़ इस मन का,
::मूल ध्येय दर्शन जीवन का,
रँगता रहा गुलाब, पटी पर अपना चित्र उठा न सका मैं।
::::[२]
::इन गीतों में रश्मि अरुण है,
::बाल ऊर्म्मि, दिनमान तरुण है,
बँधे अमित अपरूप रूप, गीतों में स्वयं समा न सका मैं।
::::[३]
::बधे सिमट कुछ भाव प्रणय के,
::कुछ भय, कुछ विश्वास हृदय के,
पर, इन से जो परे तत्व वर्णों में उसे बिठा न सका मैं।
::::[४]
::घूम चुकी कल्पना गगन में,
::विजन विपिन, नन्दन-कानन में,
अग-जग घूम थका, लेकिन, अपने घर अब तक आ न सका मैं।
::::[५]
::गाता गीत विजय-मद-माता,
::मैं अपने तक पहुँच न पाता,
स्मृति-पूजन में कभी देवता को दो फूल चढ़ा न सका मैं।
::::[६]
::परिधि-परिधि मैं घूम रहा हूँ,
::गन्ध-मात्र से झूम रहा हूँ,
जो अपीत रस-पात्र अचुम्बित, उस पर अधर लगा न सका मैं।
::::[७]
::सम्मुख एक ज्योति झिलमिल है,
::हँसता एक कुसुम खिलखिल है,
देख-देख मैं चित्र बनाता, फिर भी चित्र बना न सका मैं।
::::[८]
::पट पर पट मैं खींच हटाता,
::फिर भी कुछ अदृश्य रह जाता,
यह माया मय भेद कौन? मन को अब तक समझा न सका मैं।
::::[९]
::पल-पल दूर देश है कोई,
::अन्तिम गान शेष है कोई,
छाया देख रहा जिसकी, काया का परिचय पा न सका मैं।
::::[१०]
::उडे जा रहे पंख पसारे,
::गीत व्योम के कूल-किनारे,
उस अगीत की ओर जिसे प्राणों से कभी लगा न सका मैं।
::::[११]
::जिस दिन वह स्वर में आयेगा,
::शेष न फिर कुछ रह जायेगा,
कह कर उसे कहूँगा वह जो अब तक कभी सुना न सका मैं।
</poem>