शेष गान / रामधारी सिंह "दिनकर"
संगिनि, जी भर गा न सका मैं।
[१]
गायन एक व्याज़ इस मन का,
मूल ध्येय दर्शन जीवन का,
रँगता रहा गुलाब, पटी पर अपना चित्र उठा न सका मैं।
[२]
इन गीतों में रश्मि अरुण है,
बाल ऊर्म्मि, दिनमान तरुण है,
बँधे अमित अपरूप रूप, गीतों में स्वयं समा न सका मैं।
[३]
बधे सिमट कुछ भाव प्रणय के,
कुछ भय, कुछ विश्वास हृदय के,
पर, इन से जो परे तत्व वर्णों में उसे बिठा न सका मैं।
[४]
घूम चुकी कल्पना गगन में,
विजन विपिन, नन्दन-कानन में,
अग-जग घूम थका, लेकिन, अपने घर अब तक आ न सका मैं।
[५]
गाता गीत विजय-मद-माता,
मैं अपने तक पहुँच न पाता,
स्मृति-पूजन में कभी देवता को दो फूल चढ़ा न सका मैं।
[६]
परिधि-परिधि मैं घूम रहा हूँ,
गन्ध-मात्र से झूम रहा हूँ,
जो अपीत रस-पात्र अचुम्बित, उस पर अधर लगा न सका मैं।
[७]
सम्मुख एक ज्योति झिलमिल है,
हँसता एक कुसुम खिलखिल है,
देख-देख मैं चित्र बनाता, फिर भी चित्र बना न सका मैं।
[८]
पट पर पट मैं खींच हटाता,
फिर भी कुछ अदृश्य रह जाता,
यह माया मय भेद कौन? मन को अब तक समझा न सका मैं।
[९]
पल-पल दूर देश है कोई,
अन्तिम गान शेष है कोई,
छाया देख रहा जिसकी, काया का परिचय पा न सका मैं।
[१०]
उडे जा रहे पंख पसारे,
गीत व्योम के कूल-किनारे,
उस अगीत की ओर जिसे प्राणों से कभी लगा न सका मैं।
[११]
जिस दिन वह स्वर में आयेगा,
शेष न फिर कुछ रह जायेगा,
कह कर उसे कहूँगा वह जो अब तक कभी सुना न सका मैं।