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वृन्द के दोहे / भाग २

5 bytes added, 14:05, 18 जून 2007
ये दोनों कहँ पाइये ,सोनों और सुगन्ध ॥ 11<br>
 
अपनी-अपनी गरज सब , बोलत करत निहोर ।<br>
बिन गरजै बोले नहीं ,गिरवर हू को मोर ॥12<br>
 
जैसे बंधन प्रेम कौ ,तैसो बन्ध न और ।<br>
काठहिं भेदै कमल को ,छेद न निकलै भौंर ॥13<br>
 
स्वारथ के सबहिं सगे ,बिन स्वारथ कोउ नाहिं ।<br>
सेवै पंछी सरस तरु , निरस भए उड़ि जाहिं ॥ 14<br>
 
मूढ़ तहाँ ही मानिये ,जहाँ न पंडित होय ।<br>
दीपक को रवि के उदै , बात न पूछै कोय ॥ 15<br>
 
बिन स्वारथ कैसे सहे , कोऊ करुवे बैन ।<br>
लात खाय पुचकारिये ,होय दुधारू धैन ॥16<br>
 
होय बुराई तें बुरो , यह कीनों करतार ।<br>
खाड़ खनैगो और को , ताको कूप तयार ॥17<br>
 
जाको जहाँ स्वारथ सधै ,सोई ताहि सुहात ।<br>
चोर न प्यारी चाँदनी ,जैसे कारी रात ॥18<br>
 
अति सरल न हूजियो ,देखो ज्यौं बनराय ।<br>
सीधे-सीधे छेदिये , बाँको तरु बच जाय ॥19<b<br>r> 
कन –कन जोरै मन जुरै ,काढ़ै निबरै सोय ।<br>
बूँद –बूँद ज्यों घट भरै ,टपकत रीतै तोय ॥ 20<br>
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