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वृन्द के दोहे / भाग २

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नीति के दोहे

वृन्द के दोहे / भाग १

जैसो गुन दीनों दई, तैसो रूप निबन्ध ।
ये दोनों कहँ पाइये, सोनों और सुगन्ध ॥ 11

अपनी-अपनी गरज सब, बोलत करत निहोर ।
बिन गरजै बोले नहीं, गिरवर हू को मोर ॥ 12

जैसे बंधन प्रेम कौ, तैसो बन्ध न और ।
काठहिं भेदै कमल को, छेद न निकलै भौंर ॥ 13

स्वारथ के सबहिं सगे,बिन स्वारथ कोउ नाहिं ।
सेवै पंछी सरस तरु, निरस भए उड़ि जाहिं ॥ 14

मूढ़ तहाँ ही मानिये, जहाँ न पंडित होय ।
दीपक को रवि के उदै, बात न पूछै कोय ॥ 15


बिन स्वारथ कैसे सहे, कोऊ करुवे बैन ।
लात खाय पुचकारिये, होय दुधारू धैन ॥ 16


होय बुराई तें बुरो, यह कीनों करतार ।
खाड़ खनैगो और को, ताको कूप तयार ॥ 17


जाको जहाँ स्वारथ सधै, सोई ताहि सुहात ।
चोर न प्यारी चाँदनी, जैसे कारी रात ॥ 18


अति सरल न हूजियो, देखो ज्यौं बनराय ।
सीधे-सीधे छेदिये, बाँको तरु बच जाय ॥ 19


कन –कन जोरै मन जुरै, काढ़ै निबरै सोय ।
बूँद –बूँद ज्यों घट भरै, टपकत रीतै तोय ॥ 20