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{{KKRachna
|रचनाकार=ज़िया फतेहाबादी
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पर ए हुमा इक महान पर है
परिन्दा ऊँची उड़ान पर है
ज़मीं को पामाल करने वाला
दिमाग़ जो आसमान पर है
उतर के धरती पे आ न जाए
वो धूप जो सायबान पर है
कभी तो आएगी मेरे लब पर
वो बात जो हर ज़ुबान पर है
बिगड़ के जब से गया है कोई
बनी हुई दिल पे जान पर है
क़दम हद ए लामकाँ में लेकिन
नज़र अभी तक मकान पर है
समुन्दरों से कहाँ बुझेगी
वो तिशनगी जो उठान पर है
" ज़िया " ये कैसी है बदगुमानी
शक उस को मेरे गुमान पर है