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कभी बन के बूंद बूँद पानी कीबादलों से गिरती हूँ .
कांपती हूँ, डरती हूँ,
यूं ही सहमी फिरती हूँ .क्या पता किधर जाऊंजाऊँ ?सोख ले मिझे माती माटी यानहर में घुल जाऊं .जाऊँ ।
काश! ऐसा भी हो कि
सीप कोई खाली हो
एक बूंद बूँद बन के भी मोतीमें बदल जाऊं जाऊँ !
'''लेखन कालरचनाकाल: १९८३'''
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