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कभी बन के बूंद पानी की / मंजुला सक्सेना

कभी बन के बूँद पानी की
बादलों से गिरती हूँ ।
कांपती हूँ, डरती हूँ,
यूं ही सहमी फिरती हूँ ।
क्या पता किधर जाऊँ ?
सोख ले मिझे माटी या
नहर में घुल जाऊँ ।
काश! ऐसा भी हो कि
सीप कोई खाली हो
एक बूँद बन के भी मोती
में बदल जाऊँ !

रचनाकाल: १९८३