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[[Category: ग़ज़ल]]
<Poempoem>
'''रचनाकाल : २००३/२०११'''
मन ही मन मुस्कुरा रही है जाड़े की धूप
माज़ी के सर्द सफ़्हे <ref>पन्ने</ref> गरमा रही है जाड़े की धूप
उड़ रही उड़ती फिरती है ये नरमो-सख़्त <ref>नर्म और कड़े</ref> पत्तों परसबके दिलों हर दिल में गीत गा रही है जाड़े की धूप
गहरी नीली शाल में लिपटे देखा लिपटा दिखा था चांद कोचाँदतेरी यादों की धूप बीते पल-छिन<ref>समय के टुकड़े</ref> उड़ा रही है जाड़े की धूप
कब से मुब्तिला <ref>क़ैद</ref> थी गुलाबी गुलों में ख़ुशबूचप्पा-चप्पा सारे ख़ाब महका रही है जाड़े की धूप
ज़िन्दगी वक़्त की धुंध में आगे दिखती नहींउफ़क़<ref>सुबह का आसमान</ref> से शफ़क़<ref>शाम का आसमान</ref> तक बह रही है तेरी रोशनीछीटें आँच की छिटका दिल के ज़ख़्म सहला रही है जाड़े की धूप
उफ़क़ से शफ़क़ तक बह रही है रोशनीज़िंदगी वक़्त की धुंध में और दिखती नहींसर्द रोशनी गुनगुना अश्को-अब्र<ref>आँसू और बादल</ref> बरसा रही है जाड़े की धूप
इस सिम्त <ref>दिशा, ओर</ref> मैं तड़पता हूँ उस सिम्त तन्हा तुमदोनों को हमको इक जा <ref>जगह</ref> बुला रही है जाड़े की धूप
मैंने कभी कहा नहीं तुमने कभी सुना नहीं
मानी प्यार हर्फ़े-इश्क़<ref>इश्क़ के शब्द</ref> समझा रही है जाड़े की धूप
'''रचनाकाल : 2003{{KKMeaning}} <poem>