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|रचनाकार= भवानीप्रसाद मिश्र
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तो उस प्रवाह का नाम सुनो <br>
जो हमको तुमको <br>
भारत को इतना गरिमामय <br>
बना गया,<br>
त्योहार देश में <br>
देशान्तर में <br>
जो ममता का मना गया ।<br>

वह है अशोक<br>
सम्राट, मौर्य कुल भूषण<br>
प्रस्थापित प्रवीर;<br>
थी शोभित<br>
पाटलिपुत्र राजधानी जिसकी <br>
सुर-सरित-तीर ।<br>

ईर्ष्या-सागर के मन्थन से<br>
संजात सदा सत्ता का मद,<br>
सुख चाहे जितना रहे <br>
नहीं संतोष दृप्त को होता है <br>
जब तक न प्राप्त करले<br>
वह पद <br>
ऐसा कोई-<br>
जो सबकी छाती में <br>
भय की ज्वाला भरदे,<br>
जो आस पास की <br>
प्रकृति और जनता को <br>
उसकी गर्वोन्नत <br>
ग्रीवा में गिरकर <br>
एक विनत माला कर दे ! <br>

थे बिंदुसार के चार पुत्र<br>
लगभग समान वय, बुद्धि, तेज<br>
जो स्वाभिमान के लिए<br>
कभी भी चढ़ सकते थे मृत्यु-सेज ।<br>

थे मगधराज भयभीत<br>
कि वे जब जायेंगे,<br>
तो ये चारों अपनी-अपनी पर आयेंगे <br>
कारण रण का तब <br>
सिंहासन बन जायेगा <br>
तब एक महाभारत फिर से <br>
इस धरती पर ठन जायेगा ।<br>

है मगध राज्य की सीमायें <br>
लगभग असीम<br>
यदि मैं घोषित कर दूँ <br>
अधिकारी है सुसीम<br>
तो भी <br>
निष्कंटक राज्य न चलने पायेगा,<br>
यह राज्य-दीप<br>
निर्वात न चलने पायेगा ।<br>

कुछ नहीं <br>
राजगुरु-परामर्श के बिना <br>
किंतु करते थे वे,<br>
मन में आयी हर द्विविधा को<br>
गुरु के आगे धरते थे वे ।<br>
तब पूछा, "पुत्रों में सुयोग्यतम<br>
प्रभो, कौन ?" <br>

पिंगल आजीवक <br>
समझ गए आशय<br>
क्षण भर वे रहे मौन<br>
फिर बोले, राजन !<br>
उत्तर कल दूँगा,<br>
कुमार आयें <br>
बैठ सब एक साथ <br>
अपना वाहन <br>
अपना आसन <br>
अपना भोजन <br>
परिवेश प्राप्त ।" <br>

सब आये <br>
जब आकर बैठ<br>
अपनी सबकी शोभा विशेष,<br>
तब प्रश्न किया फिर राजा ने <br>
गुरु रहे सोचते लव-निमेष ।<br>

अनुमान हो गया <br>
कौन किस तरह आया है,<br>
वे समझ गए<br>
’हर एक दृष्टि से<br>
मँझला पुत्र सवाया है <br>
मँझला अर्थात अशोक <br>
चुना था वाहन राजा का हाथी ,<br>
लाया था <br>
माता के हाथों का बना खाद्य<br>
वह बैठा था दूर्वा-दल पर<br>
स्वीकारा स्वर्णासन के बदले <br>
आसन जिसने मूल, आद्य <br>
निर्लिप्त<br>
भूमि पर बैठा था <br>
था भोज्य पात्र में माटी के , <br>
है यह कुमार <br>
हर भाँति योग्य<br>
राजर्षि-योग परिपाटी के ।<br>
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