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कविता होना समय के साथ जीना और समयातीत होना दोनों है । और इसके लिए हमें उन तमाम संधियों से रू-ब-रू होना पड़ता है, जो उम्र भर की मानुषी-यात्रा की एक लाज़िमी शर्त हैं । कविता होकर उन संधियों को जीना साँसों के प्रवाह को उनसे निरुद्ध न होने देना है । है। अनिरुद्ध सहज बहना ही जीने की वास्तविकता है, निरर्थक के बीच सार्थक होना है और यह सहज बहना कविता का मर्म भी है । जीवन में कुछ पाने की आकाँक्षा से हम किसिम-किसिम की संधियाँ करते हैं । ये संधियाँ एक ओर तो मानुषी प्रयास को उत्प्रेरित करतीं हैं और दूसरी ओर ये ही मनुष्य के भावनात्मक विकास की सीमारेखा भी बनाती हैं। कविता होने के क्षण में हम इन दोनों ही स्थितियों को एक साथ जीते हैं; इनके माध्यम से आदिम अर्थातों को खोजते हैं और समय में रहकर भी समयातीत होते हैं । कविता का यही विरोधाभास तो उसकी अनन्य सिद्धि है, उसकी चरम उपलब्धि है। कविता की रहस्यमयी अभीप्सा एवं रागात्मक अंतर्दृष्टि मनुष्य को देवत्व की भूमिका में कुछ क्षणों के लिए पहुँचा देती है।
अपने इस छठे कविता-संग्रह में मैंने इसी देवत्व की यानी सार्थक मनुष्य होने की भूमिका की तलाश की है।
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