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|पीछे=नख सौं भुँअ खोदत कोद चहूँ / शृंगार-लतिका / द्विज
|आगे=ऐसैं बिचारत हीं मति मेरी / शृंगार-लतिका / द्विज
|सारणी=शृंगार-लतिका / द्विज/ पृष्ठ 3
}}
<poem>
'''मत्तगयंद सवैया'''
''(पुनः वसंत की नवीन शोभा का वर्णन)''
फूले घने, घने कुंजन माँहिं, नए छबि-पुंज के बीज बए हैं ।
त्यौं तरु-जूहन मैं ’द्विजदेव’, प्रसून नए-ई-नए उनए हैं ॥
साँचौ किधौं सपनौं करतार! बिचारत हूँ नहिं ठीक ठए हैं ।
संग नए, त्यौं समाज नए, सब साज नए, ऋतुराज नए हैं ॥३४॥
</poem>
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'''मत्तगयंद सवैया'''
''(पुनः वसंत की नवीन शोभा का वर्णन)''
फूले घने, घने कुंजन माँहिं, नए छबि-पुंज के बीज बए हैं ।
त्यौं तरु-जूहन मैं ’द्विजदेव’, प्रसून नए-ई-नए उनए हैं ॥
साँचौ किधौं सपनौं करतार! बिचारत हूँ नहिं ठीक ठए हैं ।
संग नए, त्यौं समाज नए, सब साज नए, ऋतुराज नए हैं ॥३४॥
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