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16:39, 1 अगस्त 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=राजूरंजन प्रसाद
|संग्रह= }}
<poem>
कितनी छोटी है हमारी धरती
कितना तंग है मनुष्यता का घेरा
कि अक्सर बड़ी हो जाती है
अपनी ही छाया
पार करता हूं जिसके
सीने से
ठीक बीचो-बीच।
(4.3.96)
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