Last modified on 1 अगस्त 2011, at 22:09

आत्मसंघर्ष / राजूरंजन प्रसाद

कितनी छोटी है हमारी धरती
कितना तंग है मनुष्यता का घेरा
कि अक्सर बड़ी हो जाती है
अपनी ही छाया
पार करता हूं जिसके
सीने से
ठीक बीचो-बीच।
(4.3.96)