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आत्मसंघर्ष / राजूरंजन प्रसाद

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कितनी छोटी है हमारी धरती
कितना तंग है मनुष्यता का घेरा
कि अक्सर बड़ी हो जाती है
अपनी ही छाया
पार करता हूं जिसके
सीने से
ठीक बीचो-बीच।
(4.3.96)