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पिंजरा / सुरेश यादव

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तोता
पिंजरे को-पंखों से
अब नहीं खरोंचता
चोंच गड़ाकर
सलाखों को
चटका देने की कोशिश
अब नहीं करता
पंख फड़फड़ाकर
उड़ने की कोशिश में
पिंजरें की सलाखों से टकराकर
गिर-गिर कर
थक कर-
बेसुध होने का यत्न नहीं करता
पानी की प्याली को
कभी नहीं ढुरकाता
तन गुलाम था तोते का
आजाद मन सब करता था
मन गुलाम है अब
देखो तो-
खुला हुआ पिंजरा है
बहर-फैला हुआ आकाश
भूलकर भी
तोता
उस ओर नहीं निहारता।



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