भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पिंजरा / सुरेश यादव
Kavita Kosh से
					
										
					
					
तोता
पिंजरे को-पंखों से
अब नहीं खरोंचता
चोंच गड़ाकर
सलाखों को
चटका देने की कोशिश
अब नहीं करता
पंख फड़फड़ाकर
उड़ने की कोशिश में
पिंजरें की सलाखों से टकराकर
गिर-गिर कर 
थक कर- 
बेसुध होने का यत्न नहीं करता
पानी की प्याली को
कभी नहीं ढुरकाता
तन गुलाम था तोते का
आजाद मन सब करता था
मन गुलाम है अब
देखो तो-
खुला हुआ पिंजरा है
बहर-फैला हुआ आकाश
भूलकर भी 
तोता 
उस ओर नहीं निहारता।
 
	
	

