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15:20, 30 अगस्त 2011 <poem>रचना यहाँ टाइप करें</poem>
वो अभी पूरा नहीं था हाँ मगर अच्छा लगा
जंगले से झांकता आधा कमर अच्छा लगा
इन महल वालों को कमरों में सजाने के लिए
इक पहाड़ी पर बना छोटा सा घर अच्छा लगा
इस बहाने कुछ परिंदे इस तरफ आते तो हैं
इस शहर के बीच ये बूढ़ा शजर अच्छा लगा
एक पागल मौज उसके पांव छूकर मर गई
रेत पर बैठा हुआ वो बेखबर अच्छा लगा
एक मीठी सी चुभन दिल पर ग़ज़ल लिखती रही
रात भर तडपा किये और रात भर अच्छा लगा
जिससे नफरत हो गई समझो कि फिर बस हो गई
और जो अच्छा लगा वो उम्र भर अच्छा लगा
बोलना तो खैर अच्छा जानते ही हैं हुजूर
बात कह जाना मगर ना बोलकर अच्छा लगा
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