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आस / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

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किसी डाली की तरह टूटता लम्हा
वक़्त की उदास बाहों में यूँ ही
उलझ कर रह जाता है अकसर
हर नज़र तारों पे कदम रखते हुए
चाँद की सिम्त सफर करती है
और जब भी सहर होने से पहले
कभी ठोकर कभी खामोश रहकर
ज़िन्दगी ओस की चाहत में बस
हर एक दर से गुज़र जाती है
आँख की आँच पर पिघली खुशबू
भरने लगती है रूह में जज़्बा
धूप भी चाँदनी-सी लगती है
स्याह रात में भी नूर कोई बोते हुए
जा-ब-जा तुम दिखाई देते हो
नींद की साजिश तो देखो ना
ख़्वाब ने हमको अभी देखा है
<Poem>
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