भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आस / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
किसी डाली की तरह टूटता लम्हा
वक़्त की उदास बाहों में यूँ ही
उलझ कर रह जाता है अकसर
हर नज़र तारों पे कदम रखते हुए
चाँद की सिम्त सफर करती है
और जब भी सहर होने से पहले
कभी ठोकर कभी खामोश रहकर
ज़िन्दगी ओस की चाहत में बस
हर एक दर से गुज़र जाती है
आँख की आँच पर पिघली खुशबू
भरने लगती है रूह में जज़्बा
धूप भी चाँदनी-सी लगती है
स्याह रात में भी नूर कोई बोते हुए
जा-ब-जा तुम दिखाई देते हो
नींद की साजिश तो देखो ना
ख़्वाब ने हमको अभी देखा है