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Kavita Kosh से
घेरती है कभी बाहें डालियां बन कर
कहीं होंठ खिल उठते हैं गुलों की तरह
नमाज़ पढ पढ़ रहा है कोई पर्वत सीने पर
कितनी गहरी है ज़रा देखो कमर की वादी
हरा-हरा-सा लगता है आज हर मंज़र