भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम्हारा जिस्म / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
तुम्हारा जिस्म है या फिर जंगल कोई
मैं हर बार यहाँ आ कर भटक जाता हूँ
पलकों की पंखुरी पर तितलियां आती है
और उड़ान भरते हैं आँखों में परिन्दे
बालों की जगह बादल लिपटे हैं गर्दन से
हथेलियों पर गुलमोहर रोज़ उगता है
घेरती है कभी बाहें डालियां बन कर
कहीं होंठ खिल उठते हैं गुलों की तरह
नमाज़ पढ़ रहा है कोई पर्वत सीने पर
कितनी गहरी है ज़रा देखो कमर की वादी
हरा-हरा-सा लगता है आज हर मंज़र
रजनीगन्धा की खुशबू आ रही है पाँव से
भर रहा है मेरी सोच में तुम्हारा नशा
तुम्हीं बताओ मैं रास्ता कैसे न भटकूँ ?