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{{KKRachna
|रचनाकार=निश्तर ख़ानक़ाही
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[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
जाँ भी अपनी नहीं, दिल भी नहीं तनहा अपना
कौन कहता है कि दुख-दर्द है अपना-अपना

दुश्मने-जाँ ही सही ,कोई शनासा(१)तो मिले
बस्ती-बस्ती लिए फिरता हूँ सरापा अपना

पुरसिशे-हाल(२)से न ग़म बढ़ जाए कहीं
हमने इस डर से कभी हाल न पूछा अपना

गैर फिर गैर है क्यों आए हमारे-नज़दीक
हम तो खुद दूर से करते हैं तमाशा अपना

लड़खड़ाया हूँ ,जो पहले तो पुकारा है तुम्हें
अब जो गिरता हूँ तो लेता हूँ सहारा अपना

अब न वो मैं हूँ न वो तुम, न वो रिश्ता बाक़ी
यों तो कहने को वही मैं हूँ "तुम्हारा अपना"

शब्दार्थ -
१- परिचित
२-हाल पूछना

<poem>