भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जाँ भी अपनी नहीं, दिल भी नहीं तनहा अपना /निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
जाँ भी अपनी नहीं, दिल भी नहीं तनहा अपना
कौन कहता है कि दुख-दर्द है अपना-अपना
दुश्मने-जाँ ही सही ,कोई शनासा(१)तो मिले
बस्ती-बस्ती लिए फिरता हूँ सरापा अपना
पुरसिशे-हाल(२)से न ग़म बढ़ जाए कहीं
हमने इस डर से कभी हाल न पूछा अपना
गैर फिर गैर है क्यों आए हमारे-नज़दीक
हम तो खुद दूर से करते हैं तमाशा अपना
लड़खड़ाया हूँ ,जो पहले तो पुकारा है तुम्हें
अब जो गिरता हूँ तो लेता हूँ सहारा अपना
अब न वो मैं हूँ न वो तुम, न वो रिश्ता बाक़ी
यों तो कहने को वही मैं हूँ "तुम्हारा अपना"
शब्दार्थ -
१- परिचित
२-हाल पूछना