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अजगरी संत्रास / रमेश रंजक

1,367 bytes added, 21:41, 7 जनवरी 2012
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तन गई हैं इस क़दर युग मान्यताएँ
घुट गया है गीत का जीवन
अरे, मन !
साँस धीमे ले बढ़ेगी और जकड़न सामने है व्यंग्य, पीछेविष-बुझा परिहासआदमखोर   शब्दहीन वेदना को बींधता सायास दुहरा शोर खींचता है अजगरी संत्रास भूखा मुट्ठियों में बंद खालीपन अचेतन धमनियों में तैर जाता बाँस का बन । टीसते हैं खिड़कियों केप्रश्-सूचक चिन्हसारी रात  टूटता अपनत्व कुंठित व्योम से विच्छिन्न उल्कापात थक गई है नब्ज जब संवेदना की क्या करे कमज़ोर संजीवन निवेदन ओढ़ धूमिल धूप पीता अनमनापन।
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