भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
|रचनाकार=विश्वनाथप्रसाद तिवारी
|संग्रह=
}}<poem>सूरज डूब रहा है
और अँधेरा घिरने वाला है
मेरे आगे जो रास्ता है
काँटे बिखरे हैं उस पर
क्या करूँ मैं ?
बचा कर निकल जाऊँ इन्हें, बगल से
या चला जाऊँ छलाँग, इनके पार
क्या करूँ मैं ?
शायद आख़िरी यात्री हूँ
आज की साँझ
संभव है कोई आ रहा हो
मेरे भी बाद
उसे दिखेंगे नहीं अँधेरे में, ये काँटे
क्या करूँ मैं ?
रुक जाऊँ काँटो के पहले
सचेत करने के लिए आने वालों को
या चुन कर हटा दूँ राह से इन्हें
क्या करूँ मैं ?
मेरी मंजिल दूर है, प्रभु
मगर
क्या यह मेरी मंजिल नहीं ?
</poem>