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Kavita Kosh से
<poem>शरद में
ठिठुरा हुआ मौसम
लगा होने गुलाबी |
ये परिन्दे
झील ,खेतों में
हमें मिलने लगे ,
चुग नहीं
पाते अभी दानें
यही इनकी खराबी |
स्वप्न देखें
फागुनी -
ऑंखें गुलालों के ,
लौट आये ,
दिन मोहब्बत
के रिसालों के ,
डाकिये
फिर खोलकर
पढ़ने लगे हैं खत जबाबी |
खनखनाती
चूड़ियाँ जैसे
बजें संतूर ,
सहचरी को कनखियों से
देखते मजदूर
सुबह
नरगिस, दोपहर लगने लगी परवीन बाबी |</poem>