शरद में
ठिठुरा हुआ मौसम
लगा होने गुलाबी |
हो गया
अपना इलाहाबाद
पेरिस ,अबू धाबी |
देह से
उतरे गुलाबी -
कत्थई ,नीले पुलोवर ,
गुनगुनाने लगे
घंटों तक
घरों के बन्द शावर ,
लाँन में
आराम कुर्सी पर
हुए ये दिन किताबी |
घोंसलों से
निकल आये
पाँव से चलने लगे ,
ये परिन्दे
झील ,खेतों में
हमें मिलने लगे ,
चुग नहीं
पाते अभी दानें
यही इनकी खराबी |
स्वप्न देखें
फागुनी -
ऑंखें गुलालों के ,
लौट आये ,
दिन मोहब्बत
के रिसालों के ,
डाकिये
फिर खोलकर
पढ़ने लगे हैं खत जबाबी |
खनखनाती
चूड़ियाँ जैसे
बजें संतूर ,
सहचरी को
कनखियों से
देखते मजदूर
सुबह
नरगिस, दोपहर
लगने लगी परवीन बाबी |