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14:38, 25 सितम्बर 2007 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सूरदास
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राग सारंग
हरि कौ मुख माइ, मोहि अनुदिन अति भावै ।<br>
चितवत चित नैननि की मति-गति बिसरावै ॥<br>
ललना लै-लै उछंग अधिक लोभ लागैं।<br>
निरखति निंदति निमेष करत ओट आगैं ॥<br>
सोभित सुकपोल-अधर, अलप-अलप दसना ।<br>
किलकि-किलकि बैन कहत, मोहन, मृदु रसना ॥<br>
नासा, लोचन बिसाल, संतत सुखकारी ।<br>
सूरदास धन्य भाग, देखति ब्रजनारी ॥<br><br>
भावार्थ :-- (गोपिका कहती है) `सखी ! मुझे तो श्यामका मुख दिन-प्रतिदिन अधिकाधिकआकर्षक लगता है । इसे देखते ही (यह) चित्त अपनी और नेत्रोंकी विचारशक्ति और गतिको विस्मृत कर देता है । (चित्त एकाग्र और नेत्र स्थिर हो जाते हैं ।) इस लालको बार-बार गोदमें लेनेपर भी (गोदमें लिये ही रहनेका) लोभ और बढ़ता जाता है ।' इस प्रकार(श्यामके श्रीमुखको) देखते हुए वे अपनी पलकोंकी निन्दा करती हैं कि ये आगे आकर (बार-बार गिरकर) आड़ कर देती है । मोहनके सुन्दर कपोल, लाल अधर तथा छोटे-छोटे दाँत अत्यन्त शोभा दे रहे हैं, बार-बार किलक-किलककर अपनी कोमल जिह्वासे वह कुछ (अस्फुट) बोल रहा है । सुन्दर नासिका, उसके बड़े-बड़े नेत्र (दर्शन करनेवालेके लिये) सदा ही आनन्ददायक हैं । सूरदासजी कहते हैं कि ये व्रजकी गोपियोंका सौभाग्य धन्य है जो मोहनको देखती हैं ।