हरि कौ मुख माइ, मोहि अनुदिन अति भावै / सूरदास
राग सारंग
हरि कौ मुख माइ, मोहि अनुदिन अति भावै ।
चितवत चित नैननि की मति-गति बिसरावै ॥
ललना लै-लै उछंग अधिक लोभ लागैं।
निरखति निंदति निमेष करत ओट आगैं ॥
सोभित सुकपोल-अधर, अलप-अलप दसना ।
किलकि-किलकि बैन कहत, मोहन, मृदु रसना ॥
नासा, लोचन बिसाल, संतत सुखकारी ।
सूरदास धन्य भाग, देखति ब्रजनारी ॥
भावार्थ :-- (गोपिका कहती है) `सखी ! मुझे तो श्याम का मुख दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक आकर्षक लगता है । इसे देखते ही (यह) चित्त अपनी और नेत्रों की विचारशक्ति और गति को विस्मृत कर देता है । (चित्त एकाग्र और नेत्र स्थिर हो जाते हैं ।) इस लाल को बार-बार गोद में लेनेपर भी (गोद में लिये ही रहने का) लोभ और बढ़ता जाता है ।' इस प्रकार(श्याम के श्रीमुख को) देखते हुए वे अपनी पलकों की निन्दा करती हैं कि ये आगे आकर (बार-बार गिरकर) आड़ कर देती है । मोहन के सुन्दर कपोल, लाल अधर तथा छोटे-छोटे दाँत अत्यन्त शोभा दे रहे हैं, बार-बार किलक-किलक कर अपनी कोमल जिह्वा से वह कुछ (अस्फुट) बोल रहा है । सुन्दर नासिका, उसके बड़े-बड़े नेत्र (दर्शन करने वाले के लिये) सदा ही आनन्ददायक हैं । सूरदास जी कहते हैं कि ये व्रज की गोपियों का सौभाग्य धन्य है जो मोहन को देखती हैं ।