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<Poem>
एक प्रवासी
भँवरा है
रंग-गंध का गाँव है

फूलों को
वह भरमाता है
मीठी-मीठे
गीत सुना कर
और हृदय में
बस जाता है
मादक-मधु
मकरंद चुरा कर

निष्ठुर,
सुधि की धूप बन गया
विरह-गीत की छाँव है

बीत रही जो
फूलों पर वह
देख-देख कलियां
चौकन्ना
सहज नहीं है
उसका मिल
बैठा
अंतर में जो बन्ना

पता चला
वह बहुत गहन है
उम्र कागज़ी नाव है
</poem>
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