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सूरदास अब धाम-देहरी चढ़ि न सकत प्रभु खरे अजान ॥<br><br>
भावार्थ :--भगवान् ! आपका वह बल क्या हो गया जिस बल से आपने मत्स्यावतार धारण करके (प्रलयसमुद्रकेप्रलय समुद्र के) जलको जल को थहा लिया और असुर (हयग्रीवहय ग्रीव)को मारकर वेदोंको वेदों को ले आये, जिस बलसे बल से आपने कच्छपरूप लेकर पीठपर पीठ पर सुमेरु पर्वतको पर्वत को धारण किया और जिस बलसे क्षीरसागरका बल से क्षीरसागर का मंथन करके स्वर्गकी स्वर्ग की (स्वर्गमैं देवताओंकीस्वर्ग मैं देवताओं की) प्रतिष्ठा की, जिस बलसे बल से वाराहरूप धारणकर पृथ्वीको पृथ्वी को आपने दाँतोंपर दाँतों पर एक पुष्पके पुष्प के समान उठा लिया, जिस बलसे बल से (नृसिंहरूप धारणकरकेधारण करके) हिरण्यकशिपुका हृदय आपने चीर डाला और अपने भक्त (प्रहलाद) के लिये कृपानिधान कृपा निधान बन गये, जिस बलसे बल से आपने पृथ्वीको पृथ्वी को तीन पदमें पद में नाप लिया और राजा बलि को बाँधकर सुतल भेज दिया, जिस बलसे बल से स्वयं उपस्थित होकर आपने (परशुरामरूपमेंपरशुरामरूप में) ब्राह्मणों की रक्षा की और उन्हें राज्यतिलक देकर प्रतिष्ठित किया (पृथ्वीका पृथ्वी का राज्य ब्राह्मणों को दे दिया), जिस बलसे बल से आपने (रामावतारमेंरामावतार में) रावणके रावण के मस्तक काटे और विभीषणको विभीषण को (लंकाकालंका का)निर्भय नरेश बनाया,जिस बलसे बल से (द्वन्द्वयुद्ध करके)जाम्बवान् के बलके बल के गर्वको आपने दूर किया और जिस बलसे पृथ्वीकी बल से पृथ्वी की प्रार्थना सुनी । (भू-भार हरणके हरण के लिये अवतार लिया, वह बल कहाँ गया?) सूरदासजी सूरदास जी कहते हैं--प्रभो ! आप तो अब सचमुच अनजान ( भोले शिशु) बन गये और घरकी देहलीपर घर की देहली पर भी चढ़ नहीं पाते हैं !