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सूरदास बलि-बलि बिलास पर, जन्म-जन्म जस गावै ॥<br><br>
भावार्थ :-- पाँड़ेजी पाँड़े जी भोग नहीं लगा पाते । जब-जब खीर बनाकर (अपने आराध्यकोआराध्य को) अर्पितकरते अर्पित करते हैं, तभी-तभी मोहन उसे छू आता है । (इससे माता डाँटने लगीं-) `मैंने तो बड़ी उमंगसे ब्राह्मणको उमंग से ब्राह्मण को निमंत्रण दिया और श्याम! तू उन्हें चिढ़ाता है ? वे अपने ठाकुरजी ठाकुर जी को भोग लगाते हैं, तब तू यों ही उठकर दौड़ पड़ता है ।'( यह सुनकर मोहन बोले-) `मैया ! तू मुझे क्यों दोष दे रही है, वह ब्राह्मण (स्वयं) बड़े-विधानसे विधान से मेरा ध्यान करता है । नेत्र बंद करके,हाथ जोड़कर बार-बार नाम लेकर मुझे बुलाता है । भला, बता-जो भक्त मेरे मनको मन को भा जाता है, उससे मुझमें मुझ में अन्तर कैसे रहे ? (मैं उससे दूर कैसे रह सकता हूँ।)' सूरदास तो इस लीलापर बार-बार न्योछावर है (प्रभो! मुझे तो यही वरदान दो कि) जन्म-जन्ममें जन्म में तुम्हारे ही यशका यश का गान करूँ ।