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{{KKRachna
|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
|संग्रह=चांद का मुँह टेढ़ा है / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
[[Category:लम्बी कविता]]
|सारणी=अंधेरे में / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
<poem>
रिहा!!
छोड़ दिया गया मैं,
कोई छाया-मुख अब करते हैं पीछा,
छायाकृतियाँ न छोड़ी हैं मुझको,
जहाँ-जहाँ गया वहाँ
भौंहों के नीचे के रहस्यमय छेद
मारते हैं संगीत--
दृष्टि की पत्थरी चमक है पैनी।
मुझे अब खोजने होंगे साथी--
काले गुलाब व स्याह सिवन्ती,
श्याम चमेली,
सँवलाये कमल जो खोहों के जल में
भूमि के भीतर पाताल-तल में
खिले हुए कबसे भेजते हैं संकेत
सुझाव-सन्देश भेजते रहते!!
इतने में सहसा दूर क्षितिज पर
दीखते हैं मुझको
बिजली की नंगी लताओं से भर रहे
सफ़ेद नीले मोतिया चम्पई फूल गुलाबी
उठते हैं वहीं पर हाथ अकस्मात्
अग्नि के फूलों को समेटने लगते।
मैं उन्हे देखने लगता हूँ एकटक,
अचानक विचित्र स्फूर्ति से मैं भी
ज़मीन पर पड़े हुए चमकीले पत्थर
लगातार चुनकर
बिजली के फूल बनाने की कोशिश
करता हूँ। रश्मि-विकिरण--
मेरे भी प्रस्तर करते हैं प्रतिक्षण।
रेडियो-एक्टिव रत्न हैं वे भी।
बिजली के फूलों की भाँति ही
यत्न हैं वे भी,
किन्तु, असन्तोष मुझको है गहरा,
शब्दाभिव्यक्ति-अभाव का संकेत।
काव्य-चमत्कार उतना ही रंगीन
परन्तु, ठण्डा।
मेरे भी फूल हैं तेजस्क्रिय, पर
अतिशय शीतल।
मुझको तो बेचैन बिजली की नीली
ज्वलन्त बाँहों में बाँहों को उलझा
करनी है उतनी ही प्रदीप्त लीला
आकाश-भर में साथ-साथ उसके घूमना है मुझको
मेरे पास न रंग है बिजली का गौर कि
भीमाकार हूँ मेघ मैं काला
परन्तु, मुझको है गम्भीर आवेश
अथाह प्रेरणा-स्रोत का संयम।
अरे, इन रंगीन पत्थर-फूलों से मेरा
काम नहीं चलेगा!!
क्या कहूँ,
मस्तक-कुण्ड में जलती
सत्-चित्-वेदना-सचाई व ग़लती--
मस्तक शिराओं में तनाव दिन-रात।
रिहा!!<br>छोड़ दिया गया मैं,<br>कोई छाया-मुख अब करते हैं पीछा,<br>अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे छायाकृतियाँ न छोड़ी हैं मुझको,<br>उठाने ही होंगे। जहाँ-जहाँ गया वहाँ<br>तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब। भौंहों पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के नीचे के रहस्यमय छेद<br>उस पार मारते हैं संगीत--<br>तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें दृष्टि की पत्थरी चमक है पैनी।<br>जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता मुझे अब खोजने होंगे साथी--<br>अरुण कमल एक काले गुलाब व स्याह सिवन्ती,<br>ले जाने उसको धँसना ही होगा श्याम चमेली,<br>सँवलाये कमल जो खोहों झील के हिम-शीत सुनील जल में<br>भूमि के भीतर पाताल-तल में<br>चाँद उग गया है खिले हुए कबसे भेजते हैं संकेत<br>सुझावगलियों की आकाशी लम्बी-सन्देश भेजते रहते!!<br>इतने सी चीर में सहसा दूर क्षितिज पर<br>दीखते हैं मुझको<br>बिजली तिरछी है किरनों की नंगी लताओं से भर रहे<br>मार सफ़ेद नीले मोतिया चम्पई फूल गुलाबी<br>उठते हैं वहीं उस नीम पर हाथ अकस्मात्<br>अग्नि जिसके कि नीचे मिट्टी के फूलों को समेटने लगते।<br>मैं उन्हे देखने लगता हूँ एकटक,<br>अचानक विचित्र स्फूर्ति से मैं भी<br>ज़मीन गोल चबूतरे पर पड़े हुए चमकीले पत्थर<br>लगातार चुनकर<br>बिजली के फूल बनाने की कोशिश<br>करता हूँ। रश्मि-विकिरण--<br>मेरे भी प्रस्तर करते हैं प्रतिक्षण।<br>रेडियो-एक्टिव रत्न हैं वे भी।<br>बिजली के फूलों की भाँति ही<br>यत्न हैं वे भी,<br>किन्तु, असन्तोष मुझको है गहरा,<br>शब्दाभिव्यक्ति-अभाव का संकेत।<br>काव्य-चमत्कार उतना ही रंगीन<br>परन्तु, ठण्डा।<br>मेरे भी फूल हैं तेजस्क्रिय, पर<br>अतिशय शीतल।<br>मुझको तो बेचैन बिजली की नीली <br>ज्वलन्त बाँहों चाँदनी में बाँहों को उलझा<br>कोई दिया सुनहला करनी जलता है उतनी मानो कि स्वप्न ही प्रदीप्त लीला<br>साक्षात् आकाशअदृश्य साकार। मकानों के बड़े-भर में साथ-साथ उसके घूमना है मुझको<br>मेरे पास न रंग है बिजली का गौर बड़े खँडहर जिनके कि<br>सूने भीमाकार हूँ मेघ मैं काला<br>मटियाले भागों में खिलती ही रहती परन्तु, मुझको है गम्भीर आवेश<br>अथाह प्रेरणामहकती रातरानी फूल-स्रोत का संयम।<br>अरे, इन रंगीन पत्थर-फूलों से मेरा<br>काम नहीं चलेगा!!<br>क्या कहूँ,<br>मस्तक-कुण्ड भरी जवानी में जलती<br>लज्जित सत्-चित्-वेदना-सचाई व ग़लती--<br>मस्तक शिराओं में तनाव दिन-रात।<br><br>तारों की टपकती अच्छी न लगती।
अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे<br>भागता मैं दम छोड़ उठाने ही होंगे।<br>तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।<br>घूम गया कई मोड़, पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों ध्वस्त दीवालों के उस पार<br>तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें<br>पर जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता<br>बहस गरम है अरुण कमल एक<br>ले जाने उसको धँसना ही होगा<br>झील के हिम-शीत सुनील जल दिमाग़ में<br>चाँद उग गया जान है<br>गलियों की आकाशी लम्बी-सी चीर , दिलों में<br>दम है तिरछी सत्य से सत्ता के युद्ध को रंग है किरनों की मार<br>, उस नीम पर<br>कमजोरियाँ सब मेरे संग हैं, जिसके कि नीचे<br>पाता हूँ सहसा-- मिट्टी के गोल चबूतरे पर, नीली<br>चाँदनी अँधेरे की सुरंग-गलियों में कोई दिया सुनहला<br>चुपचाप जलता है मानो कि स्वप्न ही साक्षात्<br>चलते हैं लोग-बाग अदृश्य साकार।<br>मकानों के बड़ेदृढ़-बड़े खँडहर जिनके कि सूने<br>पद गम्भीर, मटियाले भागों में खिलती ही रहती<br>बालक युवागण महकती रातरानी फूलमन्द-भरी जवानी गति नीरव किसी निज भीतरी बात में लज्जित<br>व्यस्त हैं, तारों की टपकती अच्छी न लगती।<br><br>कोई आग जल रही तो भी अन्तःस्थ।
भागता विचित्र अनुभव!! जितना मैं दम छोड़<br>लोगों की पाँतों को पार कर घूम गया कई मोड़बढ़ता हूँ आगे,<br> ध्वस्त दीवालों के उस पार कहीं पर<br>उतना ही पीछे मैं रहता हूँ अकेला, बहस गरम है<br>पश्चात्-पद हूँ। दिमाग़ में जान हैपर, दिलों में दम है<br>एक रेला और सत्य पीछे से सत्ता के युद्ध को रंग है,<br>चला और पर कमजोरियाँ सब अब मेरे संग हैं,<br>साथ है। पाता हूँ सहसा--<br>आश्चर्य!! अद्भुत!! अँधेरे लोगों की सुरंगमुट्ठियाँ बँधी हैं। अँगुली-गलियों में चुपचाप<br>सन्धि से फूट रहीं किरनें चलते हैं लोगलाल-बाग<br>लाल दृढ़यह क्या!! मेरे ही विक्षोभ-पद गम्भीरमणियों को लिये वे,<br>बालक युवागण<br>मन्दमेरे ही विवेक-गति नीरव<br>रत्नों को लेकर, किसी निज भीतरी बात बढ़ रहे लोग अँधेरे में व्यस्त हैं, <br>सोत्साह। कोई आग जल रही तो भी अन्तःस्थ।<br><br>किन्तु मैं अकेला। बौद्धिक जुगाली में अपने से दुकेला।
विचित्र अनुभव!!<br>जितना गलियों के अँधेरे में मैं लोगों की पाँतों को पार कर<br>बढ़ता भाग रहा हूँ आगे, <br>उतना ही पीछे मैं रहता हूँ अकेलाइतने में चुपचाप कोई एक दे जाता पर्चा,<br>पश्चात्कोई गुप्त शक्ति हृदय में करने-पद हूँ।<br>सी लगती है चर्चा!! पर, एक रेला और <br>पीछे मैं बहुत ध्यान से चला और<br>अब मेरे साथ है।<br>पढ़ता हूँ उसको! आश्चर्य!! अद्भुत!!<br>लोगों की मुट्ठियाँ बँधी हैं।<br>उसमें तो मेरे ही गुप्त विचार व अँगुली-सन्धि से फूट रहीं किरनें<br>दबी हुई संवेदनाएँ व अनुभव लाल-लाल<br>पीड़ाएँ जगमगा रही हैं। यह सब क्याहै!!<br>मेरे ही विक्षोभ-मणियों को लिये वे,<br>मेरे ही विवेक-रत्नों को लेकर,<br>बढ़ रहे लोग अँधेरे में सोत्साह।<br>किन्तु मैं अकेला।<br>बौद्धिक जुगाली में अपने से दुकेला।<br><br>
गलियों आसमान झाँकता है लकीरों के अँधेरे बीच-बीच वाक्यों की पाँतों में मैं भाग रहा हूँ,<br>आकाशगंगा-फैली इतने शब्दों के व्यूहों में चुपचाप कोई एक<br>ताराएँ चमकीं दे जाता पर्चा,<br>तारक-दलों में भी खिलता है आँगन कोई गुप्त शक्ति<br>जिसमें कि चम्पा के फूल चमकते हृदय शब्दाकाशों के कानों में करने-सी लगती है चर्चा!!<br>गहरे तुलसी श्यामल खिलते हैं मैं बहुत ध्यान से पढ़ता हूँ उसको::चेहरे !<br>आश्चर्य!<br>उसमें तो मेरे ही गुप्त विचार व<br>दबी हुई संवेदनाएँ व अनुभव<br>पीड़ाएँ जगमगा रही हैं।<br>यह सब क्या चमकता है!!<br><br>आशय मनोज्ञ मुखों से पारिजात-पुष्प महकते ।
आसमान झाँकता है लकीरों के बीच-बीच<br>पर्चा पढ़ते हुए उड़ता हूँ हवा में, वाक्यों की पाँतों में आकाशगंगाचक्रवात-फैली<br>शब्दों के व्यूहों गतियों में ताराएँ चमकीं<br>घूमता हूँ नभ पर, तारक-दलों ज़मीन पर एक साथ सर्वत्र सचेत उपस्थित। प्रत्येक स्थान पर लगा हूँ मैं काम में भी खिलता है आँगन<br>, जिसमें कि चम्पा प्रत्येक चौराहे, दुराहे व राहों के फूल चमकते <br>मोड़ पर शब्दाकाशों के कानों में गहरे तुलसी श्यामल खिलते हैं<br>सड़क पर खड़ा हूँ, ::चेहरे मानता हूँ, मानता हूँ, मनवाता अड़ा हूँ!!<br>चमकता है आशय मनोज्ञ मुखों से<br>पारिजात-पुष्प महकते ।<br><br>
पर्चा पढ़ते हुए उड़ता हूँ हवा में, <br>चक्रवात-गतियों में घूमता हूँ नभ पर,<br>ज़मीन पर एक साथ<br>सर्वत्र सचेत उपस्थित।<br>प्रत्येक स्थान पर लगा हूँ मैं काम में, <br>प्रत्येक चौराहे, दुराहे व राहों के मोड़ पर<br>सड़क पर खड़ा हूँ,<br>मानता हूँ, मानता हूँ, मनवाता अड़ा हूँ!!<br><br> और तब दिक्काल-दूरियाँ<br>अपने ही देश के नक्षे-सी टँगी हुई<br>रँगी हुई लगतीं!!<br>स्वप्नों की कोमल किरनें कि मानो<br>घनीभूत संघनित द्युतिमान<br>शिलाओं में परिणत<br>ये दृढ़ीभूत कर्म-शिलाएँ हैं<br>जिनसे की स्वप्नों की मूर्ति बनेगी<br>सस्मित सुखकर<br>जिसकी कि किरनें,<br>ब्रह्माण्ड-भर में नापेंगी सब कुछ!<br>सचमुच, मुझको तो ज़िन्दगी-सरहद<br>
सूर्यों के प्रांगण पार भी जाती-सी दीखती!!
मैं परिणत हूँ,<br>कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ<br>वर्तमान समाज में चल नहीं सकता।<br>पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता,<br>स्वातन्त्र्य व्यक्ति वादी<br>छल नहीं सकता मुक्ति के मन को,<br>जन को।<br/poem>
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