रिहा!! 
छोड़ दिया गया मैं, 
कोई छाया-मुख अब करते हैं पीछा, 
छायाकृतियाँ न छोड़ी हैं मुझको, 
जहाँ-जहाँ गया वहाँ 
भौंहों के नीचे के रहस्यमय छेद 
मारते हैं संगीत-- 
दृष्टि की पत्थरी चमक है पैनी। 
मुझे अब खोजने होंगे साथी-- 
काले गुलाब व स्याह सिवन्ती, 
श्याम चमेली, 
सँवलाये कमल जो खोहों के जल में 
भूमि के भीतर पाताल-तल में 
खिले हुए कबसे भेजते हैं संकेत 
सुझाव-सन्देश भेजते रहते!! 
इतने में सहसा दूर क्षितिज पर 
दीखते हैं मुझको 
बिजली की नंगी लताओं से भर रहे 
सफ़ेद नीले मोतिया चम्पई फूल गुलाबी 
उठते हैं वहीं पर हाथ अकस्मात् 
अग्नि के फूलों को समेटने लगते। 
मैं उन्हे देखने लगता हूँ एकटक, 
अचानक विचित्र स्फूर्ति से मैं भी 
ज़मीन पर पड़े हुए चमकीले पत्थर 
लगातार चुनकर 
बिजली के फूल बनाने की कोशिश 
करता हूँ। रश्मि-विकिरण-- 
मेरे भी प्रस्तर करते हैं प्रतिक्षण। 
रेडियो-एक्टिव रत्न हैं वे भी। 
बिजली के फूलों की भाँति ही 
यत्न हैं वे भी, 
किन्तु, असन्तोष मुझको है गहरा, 
शब्दाभिव्यक्ति-अभाव का संकेत। 
काव्य-चमत्कार उतना ही रंगीन 
परन्तु, ठण्डा। 
मेरे भी फूल हैं तेजस्क्रिय, पर 
अतिशय शीतल। 
मुझको तो बेचैन बिजली की नीली  
ज्वलन्त बाँहों में बाँहों को उलझा 
करनी है उतनी ही प्रदीप्त लीला 
आकाश-भर में साथ-साथ उसके घूमना है मुझको 
मेरे पास न रंग है बिजली का गौर कि 
भीमाकार हूँ मेघ मैं काला 
परन्तु, मुझको है गम्भीर आवेश 
अथाह प्रेरणा-स्रोत का संयम। 
अरे, इन रंगीन पत्थर-फूलों से मेरा 
काम नहीं चलेगा!! 
क्या कहूँ, 
मस्तक-कुण्ड में जलती 
सत्-चित्-वेदना-सचाई व ग़लती-- 
मस्तक शिराओं में तनाव दिन-रात।  
अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे 
उठाने ही होंगे। 
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब। 
पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार 
तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें 
जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता 
अरुण कमल एक 
ले जाने उसको धँसना ही होगा 
झील के हिम-शीत सुनील जल में 
चाँद उग गया है 
गलियों की आकाशी लम्बी-सी चीर में 
तिरछी है किरनों की मार 
उस नीम पर 
जिसके कि नीचे 
मिट्टी के गोल चबूतरे पर, नीली 
चाँदनी में कोई दिया सुनहला 
जलता है मानो कि स्वप्न ही साक्षात् 
अदृश्य साकार। 
मकानों के बड़े-बड़े खँडहर जिनके कि सूने 
मटियाले भागों में खिलती ही रहती 
महकती रातरानी फूल-भरी जवानी में लज्जित 
तारों की टपकती अच्छी न लगती।  
भागता मैं दम छोड़ 
घूम गया कई मोड़, 
ध्वस्त दीवालों के उस पार कहीं पर 
बहस गरम है 
दिमाग़ में जान है, दिलों में दम है 
सत्य से सत्ता के युद्ध को रंग है, 
पर कमजोरियाँ सब मेरे संग हैं, 
पाता हूँ सहसा-- 
अँधेरे की सुरंग-गलियों में चुपचाप 
चलते हैं लोग-बाग 
दृढ़-पद गम्भीर, 
बालक युवागण 
मन्द-गति नीरव 
किसी निज भीतरी बात में व्यस्त हैं,  
कोई आग जल रही तो भी अन्तःस्थ।  
विचित्र अनुभव!! 
जितना मैं लोगों की पाँतों को पार कर 
बढ़ता हूँ आगे,  
उतना ही पीछे मैं रहता हूँ अकेला, 
पश्चात्-पद हूँ। 
पर, एक रेला और  
पीछे से चला और 
अब मेरे साथ है। 
आश्चर्य!! अद्भुत!! 
लोगों की मुट्ठियाँ बँधी हैं। 
अँगुली-सन्धि से फूट रहीं किरनें 
लाल-लाल 
यह क्या!! 
मेरे ही विक्षोभ-मणियों को लिये वे, 
मेरे ही विवेक-रत्नों को लेकर, 
बढ़ रहे लोग अँधेरे में सोत्साह। 
किन्तु मैं अकेला। 
बौद्धिक जुगाली में अपने से दुकेला।  
गलियों के अँधेरे में मैं भाग रहा हूँ, 
इतने में चुपचाप कोई एक 
दे जाता पर्चा, 
कोई गुप्त शक्ति 
हृदय में करने-सी लगती है चर्चा!! 
मैं बहुत ध्यान से पढ़ता हूँ उसको! 
आश्चर्य! 
उसमें तो मेरे ही गुप्त विचार व 
दबी हुई संवेदनाएँ व अनुभव 
पीड़ाएँ जगमगा रही हैं। 
यह सब क्या है!!  
आसमान झाँकता है लकीरों के बीच-बीच 
वाक्यों की पाँतों में आकाशगंगा-फैली 
शब्दों के व्यूहों में ताराएँ चमकीं 
तारक-दलों में भी खिलता है आँगन 
जिसमें कि चम्पा के फूल चमकते  
शब्दाकाशों के कानों में गहरे तुलसी श्यामल खिलते हैं 
चेहरे !! 
चमकता है आशय मनोज्ञ मुखों से 
पारिजात-पुष्प महकते ।  
पर्चा पढ़ते हुए उड़ता हूँ हवा में,  
चक्रवात-गतियों में घूमता हूँ नभ पर, 
ज़मीन पर एक साथ 
सर्वत्र सचेत उपस्थित। 
प्रत्येक स्थान पर लगा हूँ मैं काम में,  
प्रत्येक चौराहे, दुराहे व राहों के मोड़ पर 
सड़क पर खड़ा हूँ, 
मानता हूँ, मानता हूँ, मनवाता अड़ा हूँ!!  
और तब दिक्काल-दूरियाँ 
अपने ही देश के नक्षे-सी टँगी हुई 
रँगी हुई लगतीं!! 
स्वप्नों की कोमल किरनें कि मानो 
घनीभूत संघनित द्युतिमान 
शिलाओं में परिणत 
ये दृढ़ीभूत कर्म-शिलाएँ हैं 
जिनसे की स्वप्नों की मूर्ति बनेगी 
सस्मित सुखकर 
जिसकी कि किरनें, 
ब्रह्माण्ड-भर में नापेंगी सब कुछ! 
सचमुच, मुझको तो ज़िन्दगी-सरहद 
सूर्यों के प्रांगण पार भी जाती-सी दीखती!!
मैं परिणत हूँ, 
कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ 
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता। 
पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता, 
स्वातन्त्र्य व्यक्ति वादी 
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को, 
जन को।