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माज़ी का वो लम्हा मुझको आज भी ख़ून रुलाए,
उखड़ी-उखड़ी बातें उसकी ग़ैरों जैसा ढंग ।
 
दिल को तो पहले ही दर्द की, दीमक चाट गई थी
रूह को भी अब खाता जाए, तन्हाई का ज़ंग ।
इन्हीं के सदके यारब मेरी मुश्किल कर आसान,
सब कुछ देकर हँस दी और फिर कहने लगी तक़दीर,
कभी न पूरी होगी तेरे दिल की यह उमंग ।
 
आज न क्यों मैं चूडियाँ अपनी, किर्ची-किर्ची कर दूँ
देखी आज एक सुन्दर नारी, प्यारे पिया के संग ।
माज़ कोई तुझसे हारे जीत पर मान न करना,
जीत वो होगी जब जीतोगे अपने आप से जंग ।
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