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|रचनाकार='वहशत' रज़ा अली कलकत्वी
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पोशीदा देखती है किसी की नज़र मुझे
देख ऐ निगाह-ए-शौक तू रूसवा न कर मुझे
मक़सद है बे-नियाज़ रहा ज़ौक़-ए-जुस्तुजू
मैं बे-ख़बर हुआ जो हुई कुछ ख़बर मुझे
मैं शब की बज़्म-ए-ऐश का मातम-नशीं हूँ आप
रो रो के क्यूँ रूलाती है शम्मा-ए-सहर मुझे
हैरत ने मेरी आईना उन को बना दिया
क्या देखते के रह गए वो देख कर मुझे
क़ुर्बान जाऊँ छोड़ तकल्लुफ़ की गुफ़्तुगू
कह कर पुकार ‘वहशत’-ए-शोरीदा-सर मुझे
</poem>
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}}
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पोशीदा देखती है किसी की नज़र मुझे
देख ऐ निगाह-ए-शौक तू रूसवा न कर मुझे
मक़सद है बे-नियाज़ रहा ज़ौक़-ए-जुस्तुजू
मैं बे-ख़बर हुआ जो हुई कुछ ख़बर मुझे
मैं शब की बज़्म-ए-ऐश का मातम-नशीं हूँ आप
रो रो के क्यूँ रूलाती है शम्मा-ए-सहर मुझे
हैरत ने मेरी आईना उन को बना दिया
क्या देखते के रह गए वो देख कर मुझे
क़ुर्बान जाऊँ छोड़ तकल्लुफ़ की गुफ़्तुगू
कह कर पुकार ‘वहशत’-ए-शोरीदा-सर मुझे
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